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याभि॒: कण्वं॒ मेधा॑तिथिं॒ याभि॒र्वशं॒ दश॑व्रजम् । याभि॒र्गोश॑र्य॒माव॑तं॒ ताभि॑र्नोऽवतं नरा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yābhiḥ kaṇvam medhātithiṁ yābhir vaśaṁ daśavrajam | yābhir gośaryam āvataṁ tābhir no vataṁ narā ||

पद पाठ

याभिः॑ । कण्व॑म् । मेध॑ऽअतिथिम् । याभिः॑ । वश॑म् । दश॑ऽव्रजम् । याभिः॑ । गोऽश॑र्यम् । आव॑तम् । ताभिः॑ । नः॒ । अ॒व॒त॒म् । न॒रा॒ ॥ ८.८.२०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:8» मन्त्र:20 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:28» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:20


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शिव शंकर शर्मा

राजकर्म कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विनौ) हे राजा और अमात्यवर्ग ! (याभिः) जिन रक्षाओं और उपायों से (कण्व१म्) कण्व की (आवतम्) रक्षा और सहायता करते हैं, जिन रक्षाओं से (मेधा२तिथिम्) मेधातिथि की रक्षा करते हैं, (याभिः) जिन रक्षाओं से (दशव्र३जम्+वश४म्) दशव्रज वश की रक्षा करते हैं, (याभिः) जिन रक्षाओं से (गोश५र्य्यम्) गोशर्य्य की रक्षा करते हैं, (ताभिः) उन रक्षाओं से (नः) हमारी (अवतम्) रक्षा कीजिये। (नरा) हे सर्वनेता अश्विद्वय ! सबकी रक्षा कीजिये ॥२०॥
भावार्थभाषाः - प्रथम राजा विविध पाठशालाओं की स्थापना से विद्याओं को बढ़ा सर्वविध विद्वानों की रक्षा करता हुआ पश्चात् इतर जनों के भरण-पोषण में यत्नवान् होवे ॥२०॥
टिप्पणी: सबसे प्रथम राजा को किस-किस की रक्षा करनी चाहिये, इसका विधान इन मन्त्रों में कहा गया है, यथा−१−कण्व−जो कमनीय विद्वान् हो, जिस विद्वान् को सब ही चाहते हों, यद्वा जो परमाणुवित् हो, यद्वा जो पदार्थों को कण-कण करके जानता हो, यद्वा जो दीप्तिमान् हो, यद्वा जो स्तुतियों का कर्त्ता हो।२−मेधातिथि−जो समाजों वा यज्ञों का अतिथि हो, यद्वा जो संगमों का विस्तार करनेवाला हो, यद्वा मेधा=बुद्धि का अतिथि=भिक्षुक हो, यद्वा यज्ञ के लिये जिसकी कोई तिथि न हो, क्योंकि शुभ कर्म सर्व तिथि में कर्तव्य हैं, यद्वा जो सर्वदा यज्ञादि शुभकर्मों में जाते हैं।३−दशव्रज−दशों दिशाओं में जिसकी गति हो, यद्वा जिनके दशों इन्द्रियव्रज=समूह हैं अर्थात् एक-२ इन्द्रिय से बहुत-२ काम लेते हैं।४−वश−जो अपने सर्वेन्द्रियों को वश में रखता है, जो जितेन्द्रिय महापुरुष हो।५−गोशर्य्य−जिसने अपने इन्द्रियों को मारा है, यद्वा जो सदा इन्द्रियों को वश करने में लगा हो, ऐसे-२ महापुरुषों की प्रथम रक्षा करनी चाहिये ॥२०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नरा) हे नेताओ ! (याभिः) जिन रक्षाओं द्वारा (मेधातिथिम्, कण्वम्) पवित्र अतिथिवाले विद्वान् की (याभिः) और जिन रक्षाओं से (वशम्, दशव्रजम्) इन्द्रियों को वश में रखनेवाले शरीरी की (याभिः) और जिनसे (गोशर्यम्) नष्टेन्द्रिय की (आवतम्) रक्षा की (ताभिः) उन्हीं रक्षाशक्तियों से (नः) मुझे (अवतम्) सुरक्षित करें ॥२०॥
भावार्थभाषाः - हे धार्मिक नेता सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! जैसे आप विद्वानों की, योगीजनों की और नष्ट इन्द्रियादि अधिकारियों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार हमारी भी रक्षा करें, ताकि आपके आधिपत्य में हमारा विद्यावर्धक यज्ञ पूर्ण हो ॥२०॥
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शिव शंकर शर्मा

राजकर्माण्याह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अश्विनौ ! याभिरूतिभिः। कण्वम्=कमनीयं विद्वांसं वा, कणवेत्तारं वा, सर्वेषां पदार्थानां कणशः कणशो यो वेत्ति तं वा, दीप्तिमन्तं वा, शब्दानां स्तुतीनां कर्त्तारं वा। आवतमवथो रक्षथः। पुनः। मेधातिथिम्=मेधानां समाजानां यज्ञानां वा अतिथिम्। यद्वा। मेधाया बुद्धेरतिथिर्याचकः। यद्वा। मेधस्य यज्ञस्य न तिथिर्विद्यते यस्य। यद्वा। मेधान् यज्ञादीनि शुभकर्माणि अतति गच्छति यः स मेधातिथिः। याभिरूतिभिरावतम्। दशव्रजम्=दश=दशेन्द्रियाणि व्रजा मार्गा यस्य तम्। यद्वा। दशसु दिक्षु व्रजोऽध्वा मार्गो यस्य सः। ईदृशं वशम्=वशीभूतं पुरुषं रक्षथः। पुनः। यमभिरूतिभिः। गोशर्य्यम्=गाव इन्द्रियाणि एव शर्य्याणि हिंसितव्यानि यस्य तम्। शॄ हिंसायाम्। हे नरा=नरौ=नेतारौ। ताभिरूतिभिर्नोऽवतम् ॥२०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नरा) हे नेतारौ ! (याभिः) याभी रक्षाभिः (मेधातिथिम्, कण्वम्) पवित्रातिथिमन्तं विद्वांसम् (याभिः) याभिश्च (वशम्, दशव्रजम्) वशिनं दशेन्द्रियशरीरं (याभिः) याभिश्च (गोशर्यम्) इन्द्रियायत्तम् (आवतम्) अरक्षिष्टम् (ताभिः) ताभी रक्षाभिः (नः) अस्मान् (अवतम्) रक्षतम् ॥२०॥